जगतारिणी भगवान शिव की माँ और करुणा की देवी तारा

Sat 28-Jun-2025,06:05 PM IST +05:30

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जगतारिणी भगवान शिव की माँ और करुणा की देवी तारा तारापीठ, माँ तारा का प्रमुख शक्तिपीठ, नयनतारा स्वरूप से प्रसिद्ध।
  • माँ तारा हिन्दू-बौद्ध परंपरा की दिव्य मुक्ति दायिनी देवी।

  • तारापीठ, माँ तारा का प्रमुख शक्तिपीठ, नयनतारा स्वरूप से प्रसिद्ध।

  • आठ रूपों में पूज्य, करुणा, धन, ज्ञान और मुक्ति की अधिष्ठात्री।

Madhya Pradesh / Jabalpur :

Jabalpur / माँ सती ने भगवान शिव को अपनी द्वितीय महाविद्या के सन्दर्भ बताया कि आपके ऊपर नीले रंग की देवी तारा हैं।दस महाविद्याओं में देवी तारा की उत्पत्ति के अनेक पुराणों और शास्त्रों में अलग-अलग कथाएँ मिलती हैं। देवी तारा को हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों में प्रमुखता दी गई है।

गुप्त नवरात्रि के द्वितीय दिवस में  देवी तारा की पूजा-आराधना की जाती है। तारा देवी को श्मशान की देवी भी कहा जाता है, साथ ही उन्हें मुक्तिदात्री भी कहा जाता है। हिंदू ही नहीं बौद्ध धर्म में भी तारा देवी की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार भगवान बुद्ध ने तारा माँ की आराधना की थी, वहीं महर्षि वशिष्ठ ने भी पूर्णता प्राप्त करने के लिए देवी तारा की आराधना की थी।

टोडाला या टोडल (तोडाला या तोडल)तंत्र और मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय जब अमृत प्राप्त हुआ, तब देवताओं और दैत्यों के मध्य इसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष हुआ। इसी संघर्ष के मध्य जब भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण कर रहे थे, तभी तारा देवी प्रकट हुईं। उन्हें आदि शक्ति का स्वरूप माना गया है, जो सृष्टि के प्रत्येक तत्व में व्याप्त है।

समुद्र मंथन में "हलाहल" नामक एक घातक विष निकला, जिससे सर्वत्र हाहाकार मच गया परन्तु भगवान शिव शांत और संयमित रहे और उन्होंने सृष्टि को बचाने के लिए, निडरता से विषपान किया, परन्तु विष की तीव्रता ने उन्हें लगभग अचेतावस्था में कर दिया।ऐंसी विषम परिस्थिति में दिव्य माँ तारा प्रकट हुईं और भगवान शिव को अपनी गोद में ले लिया। माँ तारा ने उन्हें दुग्ध पान कराया,जिससे हलाहल विष की तीव्रता क्षीर्ण हो गई और भगवान शिव चैतन्य हो गए। इसलिए माँ तारा को भगवान शिव की माँ होने की उपाधि मिली है।

 दस महाविद्याओं में देवी तारा को महासरस्वती और महासिद्धि का रूप भी माना जाता है।पौराणिक कथाओं के अनुसार यह कहा जाता है कि जब सृष्टि का विनाश हो रहा था और चारों ओर अंधकार सा छा गया था, तब तारा देवी ने अपने शक्तिशाली रूप में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड को नष्ट होने से बचाया और सृष्टि का पुनः सृजन किया था।

बौद्ध धर्म में, तारा की उत्पत्ति अवलोकितेश्वर के आँसुओं से मानी गई है। एक कथा के अनुसार,अवलोकितेश्वर ने सृष्टि के दुखों को देखकर आंसू बहाए थे और उन आँसुओं से एक कमल का पुष्प प्रकट हुआ, जिससे तारा देवी का प्राकट्य हुआ। तारा देवी ने प्रतिज्ञा ली, कि वो सदैव संसार के प्राणियों की रक्षा करेंगी और उन्हें मुक्ति दिलाएंगी।इसलिए माँ तारा को बौद्ध धर्म में "तारिणी" के रूप में भी पूजा जाता है। महाविद्या माँ तारा का यह रुप उनकी करुणा और दया के लिए जाना जाता है।

तारा देवी हिन्दू धर्म में 10 महा विद्याओं में से द्वितीय महाविद्या के रूप में शिरोधार्य हैं। 'तारा' का अर्थ है,तारने वाली अर्थात् पार कराने वाली। तारा देवी सती का ही एक रूप हैं। इनके तीन स्वरुप सुप्रसिद्ध हैं- एकजटा, उग्र तारा और नील सरस्वती। 

परन्तु मायातंत्र के अनुसार माँ तारा को आठ दिव्य रूपों में पूजा जाता है जो उन्हें उग्र और दयालु दिव्य माँ के रूप में दर्शाता है। माँ तारा के आठ दिव्य रूपों का उल्लेख "मायातंत्र" में किया गया है, ये आठ दिव्य रूप हैं,माँ महोगरा,माँ उग्रतारा,माँ कामेश्वरी तारा,माँ नील सरस्वती,माँ एकजटा,माँ चामुंडा,माँ भद्रकाली,माँ वज्र तारा।
माँ तारा के आठ दिव्य रूपों में पूजा करने वाले भक्तों को माँ तारा अज्ञानता पर नियंत्रण पाने और आध्यात्मिक विकास प्राप्त करने के लिए संरक्षण और मार्गदर्शन का आशीर्वाद देती हैं।

यह भी सर्वश्रुत है कि तारा देवी लोगों को समस्याओं से बाहर निकलने में सहायता करती हैं और उन्हें धन-संपत्ति भी प्रदान करती हैं। इसलिए, इन्हें धन की देवी भी कहा जाता है। तारा महाविद्या की साधना सिद्धि के बाद साधक को धन की कमी नहीं रहती है। माँ तारा ज्ञान, वाणी में ओज, शक्तिशाली व्यक्तित्व और सीखने के गुणों को प्रदान करती हैं और उनमें आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं।

 माँ सती के 51 शक्ति पीठों में से एक शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में है, जिसे तारापीठ के नाम से जाना जाता है। यहाँ देवी सती की दाहिनी आँख की पुतली गिरी थी, जिस कारण माँ तारा को नयनतारा के नाम से भी जाना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के राजगुरु महर्षि वशिष्ठ के द्वारा माँ तारा की पूजा-अर्चना कर सिद्धियाँ प्राप्त की गयी थीं।

महाविद्या देवी तारा हिंदू धर्म के साथ, विविध स्वरूपों में बौद्ध धर्म में भी पूजित हैं, विशेषकर  तिब्बती और मंगोलियन बौद्ध जनों के मध्य! वहां तारा देवी को सुरक्षा, मुक्तिदाता और भक्तों का उद्धार करने वाली माता के रूप में पूजा जाता है। वज्रयान संप्रदाय में लाल तारा, जुनून और मोह की देवी हैं, नीली तारा, तीसरी आंख की ऊर्जा और आध्यात्मिक जागृति की देवी हैं, हरी तारा,उपचार और करुणा की देवी हैं, श्वेत तारा, पवित्रता और मुकुट चक्र सक्रियण की देवी हैं और काली तारा,सुरक्षा की देवी के रूप में पूजी जाती हैं। 
 
महाविद्या माँ तारा मुक्ति की ओर मार्गदर्शन करती हैं।माँ तारा अपने भक्तों को अज्ञानता के अंधकार और अहंकार के भ्रम से से उबारती हैं। माँ तारा की करुणा असीम है, वो भक्तों के जीवन की अशांत चुनौतियों का शमन करती हैं और अपने दिव्य आशीर्वाद से बाधाओं को दूर करती हैं। माँ तारा की सच्चे मन से पूजा-अर्चना करने पर साधक आध्यात्मिक मुक्ति की ओर एक परिवर्तनकारी यात्रा प्रारम्भ करने में सक्षम होता है, जहाँ से वह सांसारिक माया मोह से परे जाकर मोक्ष की प्राप्ति कर सके।

 डॉ. आनंद सिंह राणा,

श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत।